
लोगो मे यह भ्रान्ति है , कि योग करना , ईश्वरत्व तक पहुँचना कठिन काम है । परंतु ईश्वर तो केवल
सहज व्यक्तियों को सहज मार्ग से ही प्राप्त हो जाता है ।
वैदिक ऋषियों ने अनेक सहज मार्ग स्थापित किये है , ईश्वर तक पहुचंने के उनमे से विपश्यना सर्व प्रमुख है ।
विपश्यना आर्यो द्वारा अपनाया जाने वाला प्राचीन और सहज योग है, जो समय के बादलों में छुप गया ,
परन्तु महात्मा गौतम बुद्ध ने इसे पुनर्जीवित कर दिखाया ।
उसी प्रकार जिस प्रकार जब सूर्य बादलो में छिप जाता है , पर जब बादल छंटते है ,
तब चारो ओर प्रकाश फैल जाता है । विपश्यना के प्रकाश ने दुख के अंधकार का नामोनिशान
मिटा कर रख दिया ।
विपश्यना
विपश्यना दो शब्दों से मिलकर बना है, वि + पश्यना । पश्य का अर्थ होता है देखना जब हम इसमे वि
उपसर्ग का प्रयोग करते है , तो यह हो जाता है ,विपश्यना । जिसका शाब्दिक अर्थ होता है ,
” विशेष प्रकार से देखना ।”
बुद्ध कहते है , कि जिस समय जहां हो केवल वही रहो शरीर से भी और मन से भी ,
केवल वर्तमान सत्य है, न भूत और न ही भविष्य ।
और वर्तमान में भी कोई घटना या विचार पर अच्छा या बुरा होने का ठप्पा मत लगाओ ,
वो केवल घटना या विचार है , उसे केवल देखो । न तो वह अच्छा है,
और न ही वह बुरा उसे केवल एक विचार की तरह देखो ।
जैसे हमारे शरीर मे सांस आति जाती रहती है, वैसे भी विचार आते जाते रहते है । हमारे मन का भय ,
चिंता ये सब एक विचार ही तो है ये एक विचार से शुरू होते है और फिर बढ़ते जाते है ,
और फिर हमारे जीवन में अच्छा या बुरा प्रभाव डालते है । क्योंकि एक सार्वभौम सत्य है ,
कि हम जैसा सोचते है , वैसा ही हम बनते चले जाते है । भगवान श्री कृष्ण ने गीता में
अर्जुन को कर्मयोग समझाते हुए इसी ओर इशारा किया था ।
वासुदेव श्री कृष्ण ने श्रीमद्भगवत गीता के तीसरे अध्याय में अर्जुन को कर्मयोग सिखाते हुए , यही कहा था , “हे पार्थ ! कर्म का कर्ता न बनकर दृष्टा बन जाओ ।
कर्म करते हुए यह भावना रखो कि तुम कुछ करते ही नही हो, सारी इंद्रिया अपने अपने विषयो
की ओर अपने अपने कर्मो को बर्तती है ।
स्वयं को कर्ता अर्थात करने वाला मानना तुम्हारी सबसे बड़ी भूल है ।
“कर्म करते हुए भी दृष्टा की भावना रखते हुए कर्म करना चाहिए । इससे हमारे अंदर निष्कामता आती है ,
फिर हमारे कर्म का फल अच्छा या बुरा हो उससे हमे न तो प्रसन्नता होगी न ही दुख ।
बस अपने कर्तव्य के पालन का एक असीम आनंद प्राप्त होगा ।
गीता के इस कर्मयोग के मार्ग पर चलना आसान नही है ,
हमारा मन राग द्वेष के बिना सरलता से रह ही नही सकता ,
वीतराग सरलता से हो ही नही सकता ।
तो मन को वीतराग करने की जो प्राचीन साधना थी , जो विलुप्त हो रही थी ,
उसमें भगवान बुद्ध ने पुनः प्राण फूंके ।
आज हम उस महान साधना को विपश्यना के नाम से जानते है ।
अनापान –
जब हम विपश्यना के द्वारा अपने जीवन में परिवर्तन को तैयार हो जाते है ,
तो सबसे प्रारम्भिक चरण में हमे अनापान करना सिखाया जाता है ।
इसमे हम अपनी सांसो के दृष्टा बन जाते है । हम बस अपनी सांसो को देखते है ,
कि सांस आ रही है और जा रही है । हमे न तो गहरी सांस लेनी है ,
और न ही अधिक धीमी बस जिस गति से हम सांस लेते है ,
उसी गति से सांस लेते रहना है और उस पर पूरा ध्यान केंद्रित करना है ।
धीरे धीरे हम विचारशून्य होते जाएंगे । यही आनापान है ।
द्वितीय चरण –
जब हम अनापान करने के अभ्यस्त हो जाते है ,
तब हमें अपनी साधना को अगले चरण में ले जाना चाहिए ।
इसमे हम जब सांसो को देख रहे होते है , तो हमारे मन मे कई तरह के विचार उठते है ।
हमे उन विचारो में संलिप्त नही होना है , उन्हें केवल एक विचार के रूप में देखना है ,
कि विचार आया और चला गया । एकदम उसी प्रकार जैसे हम सांस को देख रहे थे,
सांस आयी और चली गयी ।
फिर हमें अपने शरीर मे उठने वाली एक एक हलचल एक एक वेग संवेग को ध्यानपूर्वक देखना है ,
उसमे लिप्त नही होना केवल देखना है । ऐसा करते करते धीरे धीरे हमारा मन शांत होने लगेगा ,
सारे विचार समाप्त हो जायेंगे । इस स्तिथि को ही समाधि कहते है ।
इस प्रकार हम जीवन की प्रत्येक घटना को एक विशेष प्रकार से देखेंगे ।
घटनाओ के अच्छे या बुरे होने के कारण ही सुख या दुख होता है ,
जब हम घटनाओ को विशेष रूप से देखेंगे , तब हम स्वयं का अवलोकन भी कर पाएंगे
हमारा ध्यान समस्याओं पर नही बल्कि समाधान ढूंढने में अपने आप लग जायेगा,
हमे उसके लिए प्रयास नही करना पड़ेगा ।
मैंने कहा था , न योग साधना का मार्ग सरल है , ईश्वर को प्राप्त भी स्वभाव की सरलता के द्वारा
ही किया जा सकता है , और उस सब मे विपश्यना एक बहुत ही उपयोगी सरल मार्ग है ।
सिद्धार्थ गौतम ने इसी मार्ग पर चलकर बुद्धत्व प्राप्त किया था ,
और वे एक साधारण राजकुमार सिद्धार्थ से गौतम बुद्ध बने ।
” बुद्धं शरणं गच्छामि । “
“धम्मं शरणं गच्छामि ।”
“संघम शरणं गच्छामि । “
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